प्रत्येक गाँव या कसबे में कभी-कभी ऐसे व्यक्ति हो जाते हैं, जिनको बहुत समय तक लोग याद किया करते हैं और उनकी अमिट छाप जन मानस पर अंकित हो जाती है। इस प्रकार के मनुष्य केवल धनी अथवा विद्वान् घरानों में ही पैदा होते हैं, ऐसी बात नहीं है।
बीकानेर के उत्तर में पूगल नाम का इलाका है। कहा जाता है, किसी समय में यहाँ पद्मिनी स्त्रियाँ होती थीं। जो भी हो, आजकल तो वहाँ वीरान, रेतीली बंजर भूमि है। पीने के पानी की कमी रहती है, इसलिये गाँव भी छोटे और दूर-दूर हैं।
यहाँ के बाशिंदों का मुख्य धन्धा भेड़ पालना है। थोड़े-से ब्राह्मण और बनिये हैं, जो लेन-देन या दुकानदारी का काम करते हैं। उनके सिवा यहाँ मुसलमान गूजरों की पर्याप्त संख्या है, जिनके पास बेहतरीन किस्म की गायें हैं। वे इनका दूध-घी बेचकर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। कहावत है- 'सेवा से मेवा मिलता है', शायद इसीलिये इनकी गायें दूध ज्यादा देती हैं और अच्छी नस्ल के बछड़े-बछड़ियाँ भी।
सन् 1951 ई० में इस तरफ भयंकर अकाल पड़ा था। कुँओं में पानी सूख गया। घरों में जो थोड़ा-बहुत घास और चारा बचा हुआ था, उससे उस वर्ष किसी प्रकार पशुओं की जान बची। अब दूसरे वर्ष भी वर्षा नहीं हुई और अकाल पड़ गया तो यहाँ के लोगों की हिम्मत टूट गयी।
कलकत्ते की मारवाड़ी - रिलीफ सोसाइटी ने दोनों वर्ष ही वहाँ राहत का काम किया था। मैं भी दूसरे वर्ष कुछ समय तक उस सिल सिले में वहाँ रहा। हम देखते कि नित्य प्रति हजारों स्त्री-पुरुष और बच्चे अपने ढोरों को लिये पैदल कोटा, बारां और मालवा की तरफ जाते रहते थे।
चार-पाँच महीनों के बाद वापस आने की सम्भावना रहती, इसलिये घर का सारा सामान भी गायों और बैलों पर लदा हुआ रहता। घर-छोड़ कर जाने में दुःख होना स्वाभाविक है और फिर अभावों से घिरी हुई हालत में।
बीहड़, लम्बा रास्ता, वैशाख की गर्मी, इसलिये सबके चेहरों पर दुःख एवं थकान की स्पष्ट छाया नजर आती थी। रास्ता काटने के लिये स्त्रियाँ भजन गाती हुई चलतीं। उन लोगों से पूछने पर वे प्रायः एक-सा ही उत्तर देते कि पानी, अनाज, घास और चारा मिलता नहीं है, क्या तो हम खायें और क्या इन पशुओं को खिलायें?
हमें पूगल क्षेत्र के गाँवों के सीमान्त पर गाय-बैलों के बहुत से कंकाल और लाशें देखने को मिलीं। पता चला कि बूढ़े बैलों और गायों को उनके मालिक जंगलों में छोड़ गये। यहाँ भूख, प्यास और गर्मी से इनके प्राण निकल गये।
कई बार तो सिसकती हुई गायें भी दिखायी दीं। उनके लिये यथा शक्ति चारे-पानी की व्यवस्था की गयी, परंतु समस्या इतनी कठिन थी कि यह बन्दोबस्त बहुत थोड़े पैमाने पर ही हो सका। यह भी पता चला कि अच्छी हालत के लोगों ने भी पानी और चारे की कमी के कारण बेकाम गाय-बैलों को मरने के लिये जंगल में छोड़ दिया है।
ज्यादातर घरों में इस प्रकार की वारदातें हो चुकी थीं, इसलिये कोई आपस की निन्दा-स्तुति की गुंजाइश भी नहीं थी।
यहीं के एक गाँव में एक दिन दोपहर के समय पहुँचा। धरती गर्मी से धू-धू करके जल रही थी। अंगारों के समान तपती हुई रेत की आँधी चल रही थी। तालाबों और कुँओं में पानी कभी का सूख गया था। लोग दस-पन्द्रह मील की दूरी से पानी लाकर प्यास बुझाते। अधिकांश लोग गाँव-इलाका छोड़कर चले गये थे, कुछ ब्राह्मण और बनिये बचे हुए थे। यहीं मैंने हमीद खाँ भाटी के बारे में सुना और उसके घर जाकर मिला।
घर कच्चा था; पर साफ-सुथरा और गोबर से लिपा-पुता। हमीद खाँ की उम्र 65-70 वर्ष के लगभग थी। शरीर का ढाँचा देख कर पता लगा कि किसी समय काफी बलिष्ठ रहे होगा। अब तो हड्डियाँ निकल आयी थीं, चेहरे पर गहरी उदासी छायी थी।
दुआ-सलाम के बाद मैंने पूछा, 'खाँ साहब ! गाँव के प्रायः सारे लोग चले गये, फिर आप क्यों यहाँ इस तरह की किल्लत में अकेले रह रहे हैं?'
वह कुछ देर तक तो मेरी तरफ फटी-फटी आँखों से देखते रहे फिर कहने लगे-'अल्लाह मालिक है, उसका ही भरोसा है। कभी-न-कभी तो वर्षा होगी ही। बेटे-बहुएँ बच्चों और धन (यहाँ गाय-बैल, ऊँट आदि को धन कहते हैं) को लेकर एक महीने पहले ही मालवा चले गये हैं। मुझे भी साथ ले जाने की बहुत जिद्द करते रहे, पर भला आप ही बताइये, अपनी धौली और भूरी दोनों को छोड़ कर कैसे जाऊँ? इन दोनों से तो एक कोस भी नहीं चला जाता। (धौली और भूरी इनकी बूढ़ी गायें थीं, जिनमें एक लँगड़ी और दूसरी बीमार थी) ।
आज इनकी इस प्रकार की हालत हो गयी है, नहीं तो दोनों ने न-जाने कितने नाहर भेड़ियों से मुठभेड़ ली है। दूध भी इनके बराबर आस-पास के गाँवों में किसी गाय के नहीं था। तीन-चार सेर तो बछड़े ही पी जाते, फिर भी दस-बारह सेर प्रत्येक का हमारे लिये बच जाता था।
ये दोनों मेरे घर की ही बेटियाँ हैं, जिस वर्ष मेरे छोटे लड़के फत्ते का जन्म हुआ था, उसके लगभग ही ये दोनों जन्मी थीं। बीस वर्ष तक हम लोग इनका दूध पीते रहे। अब आप ही बताइये बुढ़ापे में इन्हें कहाँ निकाल दूँ? भला कोई अपनी बहन-बेटी को घर से थोड़े ही निकाल देता है?' बातें करते हुए उनकी आवाज रुँआसी हो गयी थी। देखा, उसकी धुँधली आँखों से टप टप आँसू गिर रहे हैं।
बातें तो और भी करना चाहता था, परंतु इतने में सुनायी दिया कि बाहर से सहन में धौली और भूरी रँभा रही हैं, शायद भूखी या प्यासी होंगी। हमीद खाँ उठ कर बाहर चला गये। गाँव के मुखिया पं० बंशीधर के साथ आठ-दस व्यक्ति रात में मिलने को आये। उनके कहने के अनुसार पचास वर्षों में ऐसा भयंकर अकाल नहीं पड़ा था। हमीद खाँ की बात चलने पर उन्होंने कहा- 'हमीद खाँ भी जिद्दी कम नहीं है। अपने लिये दो जून का खाना तक नहीं जुटा पाता, पर इन दोनों गायों पर जान देता है। दिन में धूप बहुत हो जाती है, इसलिये रात को दो बजे उठ कर 5 मील दूर स्थित तालाब से दोनों के लिये एक मटका पानी लाता है। घर वाले जो अनाज छोड़कर गये थे, उसमें से बहुत-सा बेंचकर इनके लिये चारा और भूसा खरीद लाया। जब वह चुक गया तो अपना मकान ऊँचे ब्याज पर गिरवी रख कर और चारा लिया है।'
गर्मी के मौसम में भी इस तरफ रातें ठण्डी हो जाती हैं, परंतु मुझे नींद नहीं आ रही थी। सोच रहा था-क्या वास्तव में ही हमीद खाँ मूर्ख और जिद्दी है ? बातचीत से तो ऐसा नहीं लग रहा था। हाँ, एक बात समझ में नहीं आयी, वह तो मुसलमान है, जिसके लिये गाय 'माता' नहीं है, फिर क्यों इन दो बेकाम गायों के पीछे नाना प्रकार के कष्ट सहकर इनके चारे-पानी के लिये अपना मकान गिरवी रख दिया है। थोड़े दिनों के बाद मूल और ब्याज बढ़कर इतना होगा कि चुकाना असम्भव हो जायगा। जब उसके बाल-बच्चे मालवा से थके-हारे वापस आयेंगे तो उन्हें शायद अपना पैतृक घर छोड़ देना पड़ेगा।
जाने से पहले एक बार फिर हमीद खाँ से मिलने की इच्छा हुई। बहुत सुबह वहाँ जाकर देखा कि वे धौली और भूरी के शरीर पर तन्मय होकर हाथ फेर रहे हैं और वे दोनों बड़ी ही करुणादृष्टि से उनकी तरफ देख रही हैं, शायद कह रही होंगी कि गाँव छोड़कर सब चले गये, फिर भी तुम इस प्रकार भूखे-प्यासे रहकर मृत्यु के मुख में जा रहे हो। हमें अपने भाग्य पर छोड़ कर बच्चों के पास चले जाओ।
सोसाइटी की तरफ से थोड़ी-बहुत व्यवस्था कर मन-ही-मन हमीद खाँ जी को प्रणाम करके भारी मन से उस गाँव से रवाना हुआ।
15 वर्ष बाद भी हमीद खाँ का वह गमगीन चेहरा आज तक भुला नहीं पाया हूँ। अभी तक मन में यह जिज्ञासा बनी हुई है कि वास्तविक गो-रक्षक उस गाँव के पं० बंशीधर और लाला रामकिशन हैं या हमीद खाँ भाटी?