आज से सत्तर-अस्सी वर्ष पहले राजस्थान के शेखावाटी अंचल में बलजी - भूरजी धाड़ैतियों (डाकुओं) का बड़ा दब दबा था। लोग उनके नाम सुन कर ही काँपने लगते थे। ऐसी भी घटनाएँ सुनने में आयीं कि सौ-डेढ़ सौ बारातियों के हथियारों से लैस दल को बलजी - भूरजी के पाँच - छः साथियों के सामने अपना सामान और धन - दौलत रख देना पड़ता था।
जो भी हो, उनका एक नियम था। उन्होंने कभी भी ब्राह्मण, हरिजन, गाँव की बहन - बेटी अथवा दुखी - दरिद्र को नहीं सताया। इनके प्रति वे इतने सदाशय रहे कि कई बार तो प्राणों की बाजी लगा कर या गिरफ्तारी का जोखिम उठा कर भी वे गरीब ब्राह्मणों की कन्याओं के विवाह में मायरा (भात) भरने के लिये आया करते थे।
कुछ वर्षों बाद, उनके नाम का नाजायज फ़ायदा उठाकर नानिया नामका एक रूंगा (राजस्थान की एक जाति) अपने को बलजी बता कर निरीह लोगों को सताने लगा। इस बात की चर्चा बलजी - भूरजी तक भी पहुँची, किंतु उन्होंने इसे गम्भीरता से नहीं लिया।
इसी बीच एक वारदात हो गयी। बिसाऊ नामका एक कसबा शेखावाटी के उत्तरी कोने में है। यहाँ के सेठ खेतसी दास पोद्दार अत्यन्त सरल और धर्म प्राण व्यक्ति थे। उनके दान-पुण्य की चर्चा पास-पड़ोस के अंचल में फैली हुई थी। लोग उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया करते थे। जरूरत मन्दों को वे गुप्त रूप से सहायता करते, नाम या शोहरत की उन्होंने परवाह कभी की नहीं।
एक दिन सेठ जी अपने चीलिये ऊँट पर सवारी कर पास के गाँव में रिश्तेदारी में जा रहे थे। उनके इस ऊँट की चर्चा आस-पास के गाँवों और कस्बों में थी। वह सवारी में जितना आराम देह था, उतना ही चाल में चीलकी तरह तेज था, इसीलिये उसका नाम चीलिया पड़ गया था। आमतौर से सेठ जी के साथ सफ़र में हमेशा एक-दो ऊँट या घोड़े और दो-चार सरदार रहते थे, किंतु संयोग की बात कि उस दिन वे अकेले ही थे।
पौषकी सन्ध्या थी। हलकी सर्दी पड़ने लगी थी, झुटपुटा हो चला था। सेठ जी ने देखा कि कुछ दूर रास्ते के किनारे एक अर्ध नग्न वृद्ध उन्हें रुकने का संकेत कर रहा है। तेजी से ऊँट बढ़ा कर वे उसके पास पहुँचे।
पूछने पर पता चला कि वह भी उसी गाँव जा रहा है, जहाँ सेठ जी जा रहे थे। पैर में मोच आ गयी, इसलिये लाचारी से बैठ जाना पड़ा। जाना जरूरी है, यदि सेठ जी उसे साथ ले लें तो बड़ी कृपा हो।
सेठ जी ने ऊँट को जैका (बैठा) लिया और सहारा देकर वृद्ध को अपने पीछे बैठा कर ऊँट को आगे बढ़ाया।
थोड़ी देर में ही उन्हें पीछे से जोर का एक झटका लगा। वे ऊँट-पर से नीचे गिर पड़े। दौड़ते ऊँट पर से गिरने के कारण एक बार तो उन्हें गश आ गया, किंतु किसी तरह से वे सँभल गये। एक पैर के घुटने की हड्डी टूट गयी, पीड़ा जोरों से बढ़ने लगी।
ऊँट स्वामी भक्त था और समझदार भी। बहुत मार पीट और खींचा तानी पर भी वह आगे नहीं बढ़ा। अड़ गया और टरडाने (आवाज करने) लगा।
सेठ जी ने देखा, ऊँट के सवार की सफेद दाढ़ी-मूँछें हट चुकी थीं, उसकी शक्ल बड़ी भयावनी दिखायी दे रही थी। असह्य पीड़ा से वे विकल हो रहे थे; फिर भी स्थिति समझने में उन्हें देर नहीं लगी। उन्होंने सवार से कहा- 'मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहूँगा।'
डाकू ने मूँछों पर हाथ फेरते हुए प्रसन्नता से अट्टहास करते हुए कहा - 'मैं बलजी का आदमी हूँ, उनका मन इस ऊँट पर बहुत दिनों से था, पर मौका नहीं लग रहा था। अब आप या तो इस ऊँट को अपने संकेत से मेरे साथ जाने के लिये राजी कर दें, नहीं तो मुझे आपको इस दुनिया से उठा देना पड़ेगा।'
सेठ जी बड़े मर्माहत हुए। उन्हें बलजी-भूरजी से इस प्रकार के धोखे की कल्पना नहीं थी। उन्हें सहसा विश्वास भी नहीं हो पा रहा था। उन्होंने कहा- 'बलजी-भूरजी डाकू जरूर हैं, पर इस ढंग की धोखे बाजी उन्होंने की हो, ऐसा सुनने में अब तक नहीं आया था। मुझे इस बात में कुछ धोखा-सा लगता है। खैर, तुम जो कोई भी हो, तुम्हें जीण-माता की सौगन्ध है कि आज की इस घटना की बात कहीं भी नहीं कहना। तुम चाहो तो ऊँट के साथ सौ-दो सौ रुपये और दे दूँगा!'
डाकू ने देखा कि उसका पाला एक अजीब आदमी से पड़ा है। ऊँट तो जा ही रहा है, कुछ रुपये देने को तैयार है। ताज्जुब तो यह कि घटना के बारे में चुप रहने की शर्त रखता है!
कुछ असमंजस से उसने सेठ जी से शर्त समझाने के लिये कहा। सेठ जी ने बताया कि वे डरते हैं कि इस घटना की चर्चा यदि फैली तो भविष्य में लोग अपरिचित बूढ़ों या असहाय राहगीरोंकी सहायता करने से डरेंगे। उन्हें इसमें धोखा नजर आयेगा। मनुष्य का अपनी ही जाति पर से विश्वास उठ जायगा। तुमने बेकार ही इतना सब किया। तुम्हें ऊँट इतना पसन्द था, मुझसे यूँ ही माँग लेते।
इतनी बातें सुनने पर भी डाकू ने सेठ जी से ऊँट को चलने का इशारा देने को कहा। सेठ जी ने इशारा किया और ऊँट चल पड़ा। डाकू ने उन्हें उसी घायल हालत में बिया बान जंगल में छोड़ दिया।
दूसरे दिन सेठ जी को ढूँढ़ते हुए लोग वहाँ पहुँचे और उन्हें घर ले गये। क्या हुआ, ऊँट कैसे गया, इसकी चर्चा को उन्होंने टाल दिया।
असलियत बहुत दिनों छिपाये छिपती नहीं। बलजी-भूरजी को सेठ जी का ऊँट गायब हो जाने की खबर लग गयी और यह भी पता चला कि नानिया रूंगा के पास वह ऊँट है। वे सारी बातें समझ गये।
कुछ ही दिनों बाद सेठ जी का ऊँट उनके नोहरे से बँधा हुआ मिला। उसके गले में बँधी एक दफ्ती पर लिखा था- 'सेठ खेतसी दास जी को बलजी-भूरजी की भेंट। वे डाकू जरूर हैं, पर धोखेबाज नहीं।'
ठीक इसी के दूसरे दिन नानिया रूंगा की लाश झुंझने के पास की पहाड़ी की तलहटी में पायी गयी।